बेचारे वेंकैया नायडू. हमारे संसदीय कार्य मंत्री का धर्म
राजनीति में रंगा तो दिखता है. पर उनकी
राजनीति में कोई धार्मिक आग्रह नहीं दिखता.
यमुना के किनारे की ज़मीन पर होने वाले कार्यक्रम में उन्हें देश
की नाक और देश की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई
दिखती है.
लेकिन शायद वे कभी यमुना नदी के किनारे तक जाकर टहले
नहीं हैं, उसमें डुबकी लगाकर आचमन करने की
कोशिश तो बहुत दूर की बात है.
अगर वे कभी दिल्ली की यमुना तक आएं तो पाएंगे कि
उसकी दुर्गंध उनकी नाक को सड़ांध से भर देगी.
नदी में हिमालय का पानी कतई नहीं बहता.
उसमें केवल दिल्ली के शौचालयों से बह कर आया मल-मूत्र अटा रहता
है. यदि यमुना के किनारे-किनारे वे वृंदावन तक चले गए तो उन्हें कुछ और अप्रिय
अनुभूतियां होंगी.
यहां एक समय भगवान कृष्ण को कंस मामा से बचाने के लिए उनके पिता ने एक
टोकरी में रख कर यमुना को पार किया था. यमुना कृष्ण के स्पर्श को आतुर
हो उठी थी और उसका स्तर बढ़ने लगा था.
बालकृष्ण ने अपना एक पैर टोकरी से निकाल कर लटका दिया था. उसे छूने
के बाद यमुना फिर बैठने लगी थी. कन्हैया अपनी
अनेक लीलाएं खेलने के लिए नंद बाबा तक पहुंच गया था.
यमुना पर कब्ज़ा जमा कर उसे दूषित करने वाले कालिया नाग के दमन का किस्सा
कृष्णावतार में हमें मिलता है. आज के संदर्भ में हमारा हर शहर कालिया नाग का रूप
ले चुका है.
कृष्ण लीला के केन्द्र में रही यमुना को, जैसे कालिया नागों ने
अपने नाम रजिस्टर करा लिया है.
आज उसी बृजभूमि की यमुना में आर्थिक विकास का सड़ा हुआ
अर्क बहता है. पीना और नहाना तो बहुत दूर की बात है,
यमुना का पानी इतना दूषित है कि उसे छूना तक बीमारी
को आमंत्रण देना है.
लेकिन इस सबसे नायडू की नाक को किसी तरह का कष्ट
नहीं होता, हमारे देश की छवि को कोई नुकसान नहीं
पहुंचता.
उनका कार्यालय यमुना से काफी दूर है. उन्हें ख़तरा कहां दिखता है? ऐसे
सामाजिक कार्यकर्ताओं में, जो कई सालों से यमुना को साफ़ करने की बात
करते रहे हैं. और ऐसे नेताओं में जो उनकी बात संसद तक पहुंचा देते
हैं.
नायडू जिस सरकार में हैं वह हर भारतीय नागरिक को शौचालय देने
की बात करती है. लेकिन यह बात नहीं
करती जब हमारी आधी आबादी के पास
ही शौचालय हैं, तब हमारी नदियां कितनी
बुरी तरह से दूषित हैं. जब सबके पास शौचालय होगा तो यमुना का, गंगा का
क्या हश्र होगा?
धर्म की चिंता करने वाली कोई भी सरकार
अपनी ही नीतियों के इस अंतर्विरोध को पहले
परखेगी, उसकी कठिनाइयों पर खुल कर बात करेगी.
लेकिन किसी भी सरकार या राजनीतिक
पार्टी में इतना दम नहीं है.
हर कोई जुमलों की राजनीति करता है. गंगा गए तो गंगाराम, जमुना
गए तो जमुनाराम.
ऐसे में धर्म हमारे आचरण को बांधने वाला धागा नहीं रहता. अपने फटे पर
लगाने वाला थेगड़ा बन कर रह जाता है. उसमें पंचमहाभूत के प्रति श्रद्धा भाव
नहीं होता. केवल अवसर ताड़ने की मौकापरस्त आंख
बचती है.
ऐसी आंख के निर्देशन में चलनी वाली जुबान जब
हिंदू, भारतीय और धार्मिक बातों की दुहाई देती है, तो
कोई संदेह नहीं बचता कि राजनीति धर्म को चला रही
है, धर्म से राजनीति नहीं चल रही है.
कुछ प्रश्नों का उत्तर तो इस विशाल, कई विश्व रिकॉर्ड स्थापित करने वाले कार्यक्रम
के आयोजकों को भी देना चाहिए. जैसे उन्होंने नदी को साफ करने
के प्रयासों की बात की है.
‘आर्ट ऑफ लिविंग’ बेंगलुरु नगर में बनी संस्था है. उसके गुरु
श्री रविशंकर बेंगलुरु में ही पले-बड़े हुए हैं. उनके बचपन में
बेंगलुरु सुंदर और भव्य तालाबों का शहर था.
आजकल वहां के तालाब प्रदूषण और उड़ते हुए झाग के कारण खबरों में आते हैं.
क्या उन दृश्यों से भारत की छवि को ठेस नहीं
पहुंचती?
अगर जलस्रोतों को साफ करने में ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग’ को ऐसी महारत
हासिल है कि वह यमुना जैसी नदी को साफ़ कर
सकती है, तो फिर बेंगलुरु के तालाबों ने उसका क्या बिगाड़ा था?
वहीं एक छोटी सी शुरुआत कर लेते.
जो लोग खुद अपने शहर के जलस्रोतों को साफ़ नहीं कर सकते वे
हिमालय से बहकर आने वाली नदियों को बचाने की बात कैसे कर
सकते हैं? अगर अपना मन चंगा न हो तो कठौती तो दूर, नदी के
तटों के बीच भी गंगा को बहाना मुश्किल है.
अब तक जिस तरह के तर्क और वक्तव्य ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ से आए हैं उनसे
यह प्रतीत नहीं होता कि यमुना और उसके किनारे के प्रति
उनमें कोई पवित्र भाव है. ये उनके लिए अपने रंगारंग कार्यक्रम और प्रचार
की पृष्ठभूमि भर है.
किराए पर लिया जनवासा, भाड़े का रंगमंच. अगर नहीं होता तो पहले से
ही संस्थान के लोग उन लोगों से बात करते जो यमुना की सफाई
के सामाजिक प्रयास कई सालों से करते रहे हैं.
ये वही लोग हैं जिन्होंने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में शिकायत
की थी, क्योंकि सामाजिक कार्यकर्ताओं के पास और कोई रास्ता
बचता नहीं है.
‘आर्ट ऑफ लिविंग’ को ऐसे लोग, उनके काम और उनकी भावना से कोई
लेना-देना नहीं है. संस्थान आज की सरकार के बहुत
क़रीब मानी जाती है. इसीलिए
केंद्रीय मंत्री नायडू उनकी पैरोकारी के
लिए संसद में बोले. धर्म की दुहाई भी दे डाली.
संस्थान का आग्रह है कि उसने नदी और उसके किनारे को बिगाड़ा
नहीं है, बल्कि संवारा है. ट्रिब्यूनल की समिति ने जांच
की तो इसका उल्टा पाया. न केवल कई तरह के नियमों की
अवमानना हुई है, बल्कि यमुना के तट के साथ कई तरह के खिलवाड़ भी
हुए है.
पर्यावरण पर काम करने वाले उन पर लगाए गए जुर्माने को एक मज़ाक बता रहे हैं.
आज अधिकांश हिंदू उत्सव और त्यौहार धर्म की मूल अवधारणा से बहुत
दूर जा चुके हैं. दीवाली धन-धान्य का नहीं, शोर और
धुएं का पर्व हो गया है. होली बनावटी रासायनों के रंगों से
मनती है, वसंत के फूलों से नहीं.
चाहे सार्वजनिक गणेशोत्सव हो या नवरात्र की काली पूजा,
ज़हरीले रंगों और प्लास्टर-ऑफ-पेरिस की प्रतिमाएं हमारे
पहले से ही दूषित जलस्रोतों को और बिगाड़ती हैं.
आज कालधर्म यही कहता है कि हिंदू उत्सवों को वापस प्रकृति के पास
जाना चाहिए. नदी के तट पर लाखों लोग और गाड़ियों को
तमाशबीनी के लिए उतारने की बजाए लोगों को अपने
दिव्य जलस्रोतों से संबंध के बारे में चेताने की ज़रूरत है.
हिंदुओं को याद करना चाहिए की हमारा अस्तित्व निसर्ग से है, पंचभूत से
है.
इनके प्रति अगर श्रद्धा भाव चला गया तो हमारा बचना भी असंभव है. इस
काम में पहल धर्मगुरुओं को ही लेनी होगी. लेकिन
ये तभी होगा जब गुरु लोकोन्मुखी, धर्मोन्मुखी होंगे.
सत्तामुखी गुरु एक भव्य विश्व रिकॉर्ड तो बना सकते हैं, पर उनके कारज
में दिव्यता दो कौड़ी की नहीं होगी.
सत्ता के नशे में ही रंगारंग कार्यक्रम करने वालों को ध्यान रखना चाहिए कि
यमुना की सत्ता और बड़ी है. वह यमराज की बहन
है.
उसका अनादर हुआ तो क़ीमत क्या होगी ये कहना असंभव है.
(पर्यावरण और विज्ञान के पत्रकार सोपान जोशी दिल्ली के
गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े हैं.)
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