राजद प्रमुख लालू प्रसाद की यह पहचान तब बनी थी, जब वे पहली बार 1990 में बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। खास बात यह है कि प्रसाद की यह पहचान आज तक कायम है। इसकी खास वजह उनकी जमीन से जुड़ी राजनीति रही है। सरल और सीधा संवाद भले ही सियासी गलियारे में हास्य का विषय रहा हो, लेकिन उसके असर को नकारा नहीं जा सकता है। खास बात यह है कि लालू के लिए विकास और सुशासन की परिभाषा वह नहीं रही है, जो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की रही है।
सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि लालू के राज में लोकशाही नौकरशाही पर हावी थी और वह जनता से सीधे तौर पर जुड़ा था। जबकि नीतीश कुमार की कार्यप्रणाली पूरी तरह से नौकरशाहों पर टिकी मानी जाती है। अब चुंकि दोनों मिलकर साथ सरकार का गठन कर चुके हैँ ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि बिहार में अब किस तरह का विकास होगा। लालू के दृष्टिकोण से विकास या फिर नीतीश कुमार के तरीके का विकास।
इस सवाल की एक बड़ी वजह यह भी है कि लालू प्रसाद आम जनता के लिए उस समय भी सहज उपलब्ध होते थे, जब वे मुख्यमंत्री थे और आज भी। जबकि नीतीश कुमार से आमजनों की सहज मुलाकात केवल जनता दरबार में ही संभव है। हालांकि एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि बिहार में जनता दरबार लगाने की शुरूआत लालू प्रसाद ने ही की थी जब वे मुख्यमंत्री थे। उनके ही तर्ज पर नीतीश कुमार ने भी जनता दरबार लगवाना शुरू किया। अंतर केवल इतना रहा कि लालू अपने मुख्यमंत्रित्व काल में प्रतिदिन दो घंटे आम जनता से मिलते थे जबकि नीतीश कुमार हफ्ते में एक बार।
श्रीकांत एवं प्रसुन्न कुमार चौधरी द्वारा लिखित पुस्तक स्वर्ग पर धावा के संदर्भों को समझें तो बिहार में दलित आंदोलन में वर्णित तथ्यों के अनुसार दलितों के लिए चलाये जाने वाले योजनाओं के क्रियान्वयन की दयनीय स्थिति के संदर्भ में सुशासन और सशक्तिकरण राजनीतिक विमर्श का प्रमुख विषय रहा है। प्राय: इन दोनों श्रेणियों को परस्पर विरोधी श्रेणियों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। विकास आधारित सुशासन बनाम पहचान आधारित सशक्तिकरण।
1950 के दशक में अमेरिकी अधिकारी ऐप्लेव की रिपोर्ट के हवाले से अकेले राजनीतिक विश्लेषक उस दशक को सबसे सुशासित दशक के रूप में वर्णित करते हैं (सशक्तिकरण के अभाव में)। उस सुशासन का लाभ उठाकर बड़े भूस्वामियों ने किस तरह भूमि सुधार कानूनों की धज्जियां उड़ाईं, यह कहने की जरूरत नहीं है। यह भूमि सुधार कानून भी दशकों के किसान आंदोलन की उपज थी। दूसरी तरफ 90 का दशक पिछड़े-दलितों के सशक्तिकरण के दशक के रूप में जाना जाता है। सुशासन के अभाव का खामियाजा उन्हीं समुदायों और समूहों को सबसे ज्यादा उठाना पड़ा, जिसका राजनीतिक सशक्तिकरण इस दशक की विशिष्ट बिकाऊ प्रस्थापना थी। अवरूद्ध और विकृत सशक्तिकरण यानी 50 का दशक बनाम 90 का दशक। जमींदारों और बड़े भूस्वामियों का सुशासन बनाम पिछड़े-दलितों का अवरूद्ध और विकृत सशक्तिकरण।
विकास के इन दो परस्पर विरोधी परिकल्पनाओं के आधार पर लालू प्रसाद की राजनीति व उनकी कार्यशैली का विश्लेषण करें तो एक अंतर साफ नजर आता है। राजद के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. रामचंद्र पूर्वे के अनुसार लालू प्रसाद ने शुद्ध रूप से गरीबों की बेहतरी के लिए राजनीति की है। जब वे मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने साफ कर दिया था कि कुर्सी रहे चाहे जाए, मंडल कमीशन की अनुशंसाओं को हर कीमत पर लागू करेंगे। अपनी इस प्रतिबद्धता को लालू प्रसाद ने उस समय पूरी कर दी, जब पिछड़ों के आरक्षण को लागू किया गया।
पहले यह परंपरा थी सेवाओं में नियोजन के लिए अधिकतम अंक के आधार पर मेरिट लिस्ट बनती थी और उसके आधार पर आरक्षित वर्गों के अभ्यर्थियों का चयन होता था। इसमें पचास फीसदी आरक्षण भी शामिल था। लेकिन लालू प्रसाद ने इसे बदल दिया। उन्होंने कहा कि यदि दलित-पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थी मेरिट लिस्ट के हिसाब से चयनित होंगे तब वे सामान्य श्रेणी में उल्लेखित किए जाएंगे। जबकि आरक्षित वर्गों के लिए 50 फीसदी आरक्षण बिल्कुल अलग था। यह एक बड़ा उदाहरण है लालू प्रसाद द्वारा बिहार में लाए गए सामाजिक बदलाव का।
वहीं बिहार के जाने-माने समाजशास्त्री व सामाजिक कार्यकर्ता अरशद अजमल के मुताबिक लालू प्रसाद जब मुख्यमंत्री थे, तब अपना काम खुद करते थे। उन्होंने बताया कि बाबरी विध्वंस के बाद जब पटना सिटी के कुछ इलाकों में दंगा भड़का तब पूरा कमान लालू प्रसाद ने खुद अपने हाथों में ले लिया था। कई बार तो ऐसा होता था कि घटना घटित होने पर पुलिस बाद में पहुंचती थी और तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद पहले पहुंच जाया करते थे। अजमल के अनुसार लालू प्रसाद सुनते सबकी थे, लेकिन उनकी नजर हमेशा लक्ष्य पर टिकी होती थी।
जिन दिनों लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को रोकने की तैयारी चल रही थी, उन दिनों लालू ने सभी धार्मिक संगठनों के प्रमुखों को बुलाकर एक बैठक में केवल इतना ही कहा कि आप सबके कई विचार हो सकते हैं। चुंकि आप लोग भद्र जन हैं, तो विचार अच्छे ही होंगे। लेकिन अभी मसला केवल रथ रोकने का है। इसके लिए जरूरी है कि आप सब लोग अपने स्तर से पहल करें। अजमल ने बताया कि करीब आधे घंटे तक चले इस बैठक में लालू प्रसाद ने पहले पांच मिनटों में सरकार के मुखिया होने की जिम्मेवारी का निर्वहन कर दिया था। बाकी जो हुआ वह महज औपचारिकता थी। शासन के प्रति ऐसी सुस्पष्टता कम ही देखते को मिलती है।
खैर, बिहार के गोपालगंज में एक यादव परिवार में जन्मे प्रसाद ने राजनीति की शुरूआत जयप्रकाश नारायण के जेपी आन्दोलन से की जब वे एक छात्र नेता थे और उस समय के राजनेता सत्येन्द्र नारायण सिन्हा के काफी करीबी रहे थे। 1977 में आपातकाल के पश्चात् हुए लोक सभा चुनाव में लालू यादव जीते और पहली बार 29 साल की उम्र में लोकसभा पहुंचे।
1980 से 1989 तक वे दो बार विधानसभा के सदस्य रहे और विपक्ष के नेता पद पर भी रहे। 1990 में वे बिहार के मुख्यमंत्री बने एवं 1995 में भी भारी बहुमत से विजयी रहे। लालू यादव के जनाधार में एमवाई यानी मुस्लिम और यादव फैक्टर का बड़ा योगदान है और उन्होंने इससे कभी इन्कार भी नहीं किया है। अलबत्ता इस बार उन्होंने अपने चुनावी अभियान की शुरूआत ही अगड़ा बनाम पिछड़ा के आधार पर किया।
1998 में केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी। दो साल बाद विधानसभा का चुनाव हुआ तो राजद अल्पमत में आ गई। सात दिनों के लिए नीतीश कुमार की सरकार बनी परन्तु वह चल नहीं पाई। एक बार फिर राबड़ी देवी मुख्यमन्त्री बनीं। कांग्रेस के 22 विधायक उनकी सरकार में मंत्री बने। 2004 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद एक बार फिर किंग मेकर की भूमिका में आए और रेलमन्त्री बने।
यादव के कार्यकाल में ही दशकों से घाटे में चल रही रेल सेवा फिर से फायदे में आई। भारत के सभी प्रमुख प्रबन्धन संस्थानों के साथ-साथ दुनिया भर के बिजनेस स्कूलों में लालू यादव के कुशल प्रबन्धन से हुआ भारतीय रेलवे का कायाकल्प एक शोध का विषय बन गया। लेकिन अगले ही साल 2005 में बिहार विधानसभा चुनाव में राजद सरकार हार गई और 2009 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी के केवल चार सांसद ही जीत सके। इसका अंजाम यह हुआ कि लालू को केन्द्र सरकार में जगह नहीं मिली। समय-समय पर लालू को बचाने वाली कांग्रेस भी इस बार उन्हें नहीं बचा नहीं पाई। दागी जन प्रतिनिधियों को बचाने वाला अध्यादेश खटाई में पड़ गया और इस तरह लालू का राजनीतिक भविष्य अधर में लटक गया।
वहीं 2010 के विधानसभा चुनाव में भी लालू प्रसाद को अपेक्षित कामयाबी नहीं मिली। उनकी अपनी पत्नी व पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी सोनपुर और राघोपुर दोनों स्थानों से चुनाव हार गईं और पूरी पार्टी 24 सीटों पर सिमट गई। लेकिन लालू यादव ने हार नहीं मानी। पिछले वर्ष यानी 2014 के लोकसभा चुनाव में हालांकि यादव को बहुत कामयाबी नहीं मिली, लेकिन 77 फीसदी क्षेत्रों में भाजपा गठबंधन को करारी चुनौती देने में वे कामयाब जरूर रहे। संभवत: यही वजह रही कि जदयू और राजद के बीच गठबंधन की शुरूआत हुई। श्री प्रसाद के इस कदम की किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। लेकिन उनके एक कदम ने भाजपा का सूपड़ा साफ कर दिया।
बहरहाल, चारा घोटाला मामले में दोषी सिद्ध होने के कारण वे चुनाव नहीं लड़ सकते हैं। लिहाजा उन्होंने स्वयं को किंगमेकर के रूप में स्थापित कर लिया है। इस क्रम में बनारस और कोलकाता में विजय रैली मनाने की बात कह उन्होंने देश की राजनीति में अपनी हैसियत बढ़ाने का फुलप्रुफ प्लान तैयार कर लिया है। देखना दिलचस्प होगा कि बिहार में खूंटा जमाने के बाद सरकार में प्रशासन के बूते सुशासन दिलाने वाले नीतीश से लोकशाही के जरिये शासन चलाने वाले इस नेता की कितनी जमती है, और दिल्ली की राजनीति में अपनी पहले वाली पहचान वे कैसे स्थापित करते हैं?