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आठ बातें जो मोदी नेहरू से सीख सकते हैं।

कुछ साल पहले विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री की भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ तुलना की थी. हालांकि बहुत से पैमानों पर सिंघल की यह तुलना बेतुकी है लेकिन अगर मोदी नेहरू से कुछ सबक ले सकें तो कैसा रहेगा?

आखिरकार दोनों नेता, हालांकि अपने वैश्विक नज़रिए, शैक्षिक योग्यता और नीति में बिल्कुल अलग हैं, लेकिन दोनों में लोकप्रियता, आम जनता से जुड़ाव और खुद को ‘राष्ट्र के प्रति समर्पित’ मानने के मामले में समानता तो है ही.
नेहरू को राज्यों के मुख्यमंत्रियों, पार्टी नेताओं, अपने मंत्रियों और यहां तक कि राष्ट्रपति तक को विभिन्न मुद्दों पर लंबी चिट्ठी लिखने की आदत थी.
मोदी ने भी ‘मन की बात’ के मार्फ़त ऐसी
आदत बना ली है और जनता को संबोधित करने का वो कोई मौका नहीं छोड़ते.
अवसर और मंशा की इन बुनियादी बातों को देखें तो
ऐसी बहुत सी चीजें है जिन्हें मोदी नेहरू से सीख सकते हैं और कर सकते हैं.

1- स्टेट्समैनः
नेहरू एक सूझबूझ वाले बड़े राजनेता थे, जिनका लोहा पश्चिम, अरब, अफ़्रीका, सुदूर पूर्व के देश और यहां तक कि कम्युनिस्ट देश भी मानते थे. कॉमनवेल्थ, बैंडुंग कॉनफ्रेंस, गुटनिरपेक्ष देशों के साथ जाने की नेहरू
की व्यवहारिकता ने भारत को वैश्विक पटल पर एक ऊंचाई दी. उभरती हुई एक आर्थिक ताक़त के मुखिया के रूप में मोदी में भी विदेशी नीति की पहलक़दमी
को लेकर एक उमंग है.
भारत को बिजनेस के लिए एक बेहतरीन जगह के रूप में चीन, रूस, अमरीका और कई विकासशील को आकर्षित करने के लिए उन्हें कुशल होने की ज़रूरत है.

2- सांस्कृतिक प्रभाव का इस्तेमाल:
नेहरू की तरह ही उन्हें अपनी कूटनीति
के लिए साउथ ब्लॉक के मदारियों पर ही पूरी तरह निर्भर होने की ज़रूरत नहीं है.
भारतीय सिनेमा, बिजनेस, आर्ट, खेल और सांस्कृतिक गतिविधियों में काफी संभावनाएं हैं. नेहरू ने ‘सांस्कृतिक कूटनीति’ के लिए उस ज़माने के मशहूर अभिनेता पृथ्वीराज की सेवाएं लीं. उन्होंने पृथ्वीराज कपूर को एक सांस्कृतिक अभियान पर दक्षिणपूर्व
एशिइयाई देशों में भेजा.
जब नेहरू स्टालिन से मिले तो वो राजकपूर की फ़िल्म ‘आवारा’ के बारे में लगातार पूछते रहे. इस बात को राजकपूर की बेटी रितु कपूर ने अपनी क़िताब में लिखा है. शाहरुख ख़ान की मध्यपूर्व के देशों और अमरीका और अन्य जगहों पर काफी लोकप्रियता है.
मोदी चाहें तो उनकी इस लोकप्रियता के आधार पर 'सांस्कृतिक डिप्लोमेसी' को भी बढ़ा सकते हैं.

3-राज्यों का पुनर्गठन:
सेक्युलरिज़्म, असहिष्णुता, खाने की आदतों पर बेमतलब की बहस की बजाय नेहरू की तरह मोदी सामाजिक, प्रशासकीय और न्यायिक सुधारों को तेज सकते हैं. आर्थिक पुनर्गठन और सुधारों के मामले में देश काफी आगे गया है, लेकिन सामाजिक, न्यायिक और प्रशासकीय सुधारों के मामले में ऐसी
ही तेजी और उत्साह नहीं दिखता.
राज्यों के पुनर्गठन को लेकर नेहरू ने पहली बार जस्टिस फ़ज़ल अली के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया था. तेलंगाना बनाए जाने को लेकर जो खूनख़राबा हुआ उसे देखते हुए इस बात
की बहुत सख़्त ज़रूरत है कि ऐसा ही एक दूसरा आयोग बनाया जाए ताकि गोरखालैंड, विदर्भ, हरित प्रदेश, बुंदेलखंड आदि को राज्य बनाने की मांगों को निपटाया जा सके.

4- सामाजिक सुधार:
नेहरू ने पहली बार हिंदू कोड बिल में संशोधन की बात आगे बढ़ाई थी, जिसके बाद बहुत विवाद खड़ा हुआ.
समाज में सुधार के उद्देश्य से लाया गया यह बिल पास तो हुआ लेकिन नेहरू को काफी पीछे हटना पड़ा.
मोदी के पास यह मौका है कि वो लैंगिक गैरबराबरी, विरासत से संबंधित निष्पक्ष क़ानून, बाल कल्याण आदि विषयों पर देश का ध्यान आकर्षित कर
सकें. शायद मोदी के लिए यही समय है कि वो संसद में बहस से पहले, बीजेपी को अपने घोषणा पत्रों में समाजिक सुधार के प्रस्तावों को शामिल करने का नेतृत्व करें.

5-वैज्ञानिक समाज:
बर्ट्रैंड रसल का एक मशहूर कथन है, “यह कहा जाता रहा है कि इंसान एक तार्किक जानवर है. मैंने पूरी ज़िंदगी इसके समर्थन में तथ्य ढूंढता रहा हूँ.”
कुछ हद तक सभी समाजों में अंधविश्वास पाया जाता है. हम ‘कैमरनकर्स’ के बारे में जानते हैं. ब्रिटिश लोगों के एक तबके का मानना है कि जब भी किसी खेल आयोजन में प्रधानमंत्री जाते हैं तो ब्रिटेन हार जाता है. ऐसा कुछ मौकों पर हुआ ही है जैसे विम्बलडन और
ओलंपिक में. लेकिन भारतीय संदर्भ में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने का क्षेत्र ऐसा है जहां मोदी नेहरू से काफी कुछ सीख सकते हैं. नेहरू चाहते थे कि सभी भारतीयों में वैज्ञानिक सोच, खुले विचार, सच्चाई के प्रति सम्मान, तार्किकता आदि का प्रसार हो. इसके लिए विज्ञान की किसी विशेष शाखा के अध्ययन होने की ज़रूरत नहीं है.

6-शिक्षा में सुधार:
भारत के शिक्षा तंत्र में ‘सही जवाब’ पाने के प्रति अंधी दौड़ है. यहां तक कि प्रयोगशाला वाली कक्षाओं में भी छात्रों के सिर पर संभावित परिणाम पाने का भूत सवार होता है, बजाय इसके कि बदलावों के प्रति खुले
दिमाग से विचार करने के. शिक्षा में जो आश्चर्य की भावना होती है उससे बच्चे अनजान ही रहते हैं. इसका सबसे बुरा उदाहरण है इतिहास को पढ़ाते समय गैर
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना. विद्यार्थियों को अलग परिणाम आने पर उसकी छानबीन करने और भिन्न परिणाम निकालने का मौका ही नहीं दिया जाता.
इसकी बजाय उन्हें राष्ट्रभक्ति या राष्ट्रीय एकता का पाठ
पढ़ाया जाता है. इतिहास की टेक्स्ट बुक इस तरह लिखी जाती हैं जिससे किसी की भावना आहत न हो जाए. टीपू सुल्तान और अन्य नायकों और खलनायकों की विरासत पर लड़ाई इसी की एक बानगी है.
छात्रों को एक बिल्कुल अलग नज़रिए से पढ़ाने की ज़रूरत है. इतिहास केवल तथ्यों का जोड़ नहीं है, बल्कि यह लगभग हमेशा ही व्याख्याओं का संग्रह होता है. और बहुत संकीर्ण नज़रिए से देखना उन ऐतिहासिक शख्सियतों के साथ अन्याय होगा.

7-सबको साथ लेकर चलने की क्षमता:
जनता और राजनीतिक वर्ग पर नेहरू की इतना मजबूत पकड़ थी जब 1955 की गर्मियों में भारत रत्न की उपाधि के लिए नेहरू का नाम आगे किया गया तो कोई विवाद नहीं पैदा हुआ.
उस समय नेहरू यूरोप की यात्रा पर गए थे और जब वियना में वो यूरोपीय नेताओं से मिल रहे थे इस उपाधि की घोषणा की गई. राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के रिश्ते नेहरू से बहुत अच्छे नहीं थे क्योंकि कई मुद्दों पर उनके आपस में मतभेद थे.
लेकिन उन्होंने नेहरू को यह उपाधि देने के लिए पूरी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. राजेंद्र प्रसाद ने 15 जुलाई 1955 को लिखा, “ऐसा करता हुए, एक बार के लिए ये कहा जा सकता है कि मैं असंवैधानिक काम कर रहा हूँ, क्योंकि मैंने खुद ये पहलकदमी उठाई है और वो भी बिना मेरे प्रधानमंत्री की ओर से सिफारिश या सुधाव के, लेकिन मैं जानता हूं कि मेरे इस काम को चारो ओर से समर्थन मिलेगा.”

8-काम में पेशेवराना रवैया:
नेहरू कांग्रेस पार्टी से जुड़े हुए थे. उनकी कैबिनेट में
भी काफी कांग्रेसी नेता थे लेकिन जिस एक बात ने
उन्हें पूरी जनता में एक स्वीकार्य प्रधानमंत्री बनाया वो था उनका पेशेवराना रवैया. उन्होंने मतभेद रखने वाले क़ाबिल नेताओं को भी अपनी कैबिनेट में जगह दी. आरएसएस से जुड़े श्यामाप्रसाद मुखर्जी, अम्बेडकर और बलदेव सिंह को मंत्री बनाया और महत्वपूर्ण
ज़िम्मेदारी सौंपी. वो विचारों की भिन्नता रखने वाले लोगों की योग्यता को देश के हित में इस्तेमाल करने के मामले में बिल्कुल साफ थे. और यही बात उनके लिए
सबको साथ लेकर चलने में सहायक भी थी. मोदी के सामने भी एक मौका है कि वो भिन्न विचार रखने वाले
योग्य लोगों को अपने साथ लेकर चलें.
हालांकि मोदी के लिए भारत रत्न पाना एक लंबी यात्रा है लेकिन अगर वो नेहरू के दिखाए उस रास्ते पर चलें जिसपर चलकर नेहरू ने लोगों का भरोसा और दिल जीत लिया था तो एक समय ऐसा आ सकता है कि बिना विवाद के वो देश के शीर्ष नागरिक पुरस्कार के हक़दार हो जाएं. और सोशल मीडिया के युग में तो यह जीत मोदी के क़द को निश्चित रूप से नेहरू से बड़ा बना देगी...?