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अब नजर आ रहे हैं मनमोहन सिंह की मेहनत के फायदे

बीजेपी ने भारत-अमेरिका परमाणु करार का विरोध किया था, लेकिन जब नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने इसकी तारीफ
की और कहा कि यह दोनों देशों की नई रणनीतिक
साझेदारी में मुख्य बिंदु है। अब वह पिछली सरकार के दौरान बोई
गई इस फसल की उपज एनएसजी और
एमसीटीआर की मेंबरशिप के रूप में काटते दिख रहे
हैं।अगर मोदी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की
भूमिका को स्वीकार करें तो इस तरह वह स्टेट्समैनशिप दिखाएंगे।
सिंह ने अपनी सरकार से कहा था कि यह डील होनी
चाहिए और उन्होंने इन उपलब्धियों की जमीन तैयार
की थी।
भारत-अमेरिका परमाणु करार कभी भी मुख्य रूप से परमाणु
ऊर्जा के बारे में नहीं रहा, हालांकि इसे पेश इसी तरह किया
गया। यह करार भारत को तकनीक मुहैया न कराने के सिस्टम से आजाद
कराने के बारे में था। यह शिकंजा परमाणु परीक्षण करने के बाद भारत पर
कसा गया था। अमेरिका ने इस संबंध में पहली की क्योंकि वह
एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन को रणनीतिक तौर पर जवाब देने
लायक सिस्टम बनाना चाहता है।
अगर भारत टेक्नोलॉजी कंट्रोल करने वाली व्यवस्था में बंधक
बना रहता तो ऐसी शक्ति के रूप में रणनीतिक क्षमता हासिल
नहीं कर सकता, जिससे वह चीन के सामने एक भरोसेमंद
चुनौती के रूप में खड़ा हो सके। अमेरिका ने इसे समझा है और भारत के
राजनीतिक नेतृत्व ने भी। यही वजह है कि
मनमोहन सिंह टेक्नोलॉजी कंट्रोल के शिकंजे से भारत को छुड़ाने के बुश
प्रशासन के उत्साह से फायदा लेने के लिए आगे बढ़े और उन्होंने उनकी
सरकार को समर्थन दे रहे वाम दलों के विरोध की परवाह भी
नहीं की थी।
बीजेपी में कुछ लोगों को पूरी तरह से पता था कि इस
न्यूक्लियर डील के परिणाम क्या हो सकते हैं, लेकिन उन्होंने इसका इस
उम्मीद में विरोध किया कि इससे यूपीए सरकार को घेरा जा सकता
है क्योंकि वह पहले से ही वाम दलों के विरोध से परेशान थी।
चाइनीज लोग भी इसके प्रभाव को जानते थे, लेकिन वे
आक्रामक ढंग से कोई विरोध दर्ज नहीं करा पाए क्योंकि अमेरिका ने तय
कर लिया था कि वह इस मामले में भारत की मदद करेगा। प्रतिबंध से
आजादी दिलाने का यह सहयोग न्यूक्लियर नॉन-प्रोलिफेरेशन
ट्रीटी (एनपीटी) पर दस्तखत न करने
वाले भारत को न्यूक्लियर क्लब की मेंबरशिप दिलाने के लिए
जरूरी था।
इंडो-यूएस न्यूक्लियर डील ने भारत के लिए चार टेक्नोलॉजी
कंट्रोल रिजीम्स यानी न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप, मिसाइल
कंट्रोल टेक्नोलॉजी रिजीम, ऑस्ट्रेलियन ग्रुप और वासेनार
अरेंजमेंट की मेंबरशिप की राह पर बढ़ने का रास्ता खोला था।
हालांकि यूपीए-2 के लड़खड़ाने और वर्ल्ड कम्युनिटी के
2008 के फाइनेंशियल क्राइसिस से उबरने में संघर्ष करते रहने के कारण मेंबरशिप
का प्रोसेस पूरा नहीं हो सका। जिम्मा इंडियन डिप्लोमेसी पर है
कि वह इस प्रक्रिया को पूरा करे।
एमटीसीआर
की मेंबरशिप तो हाथ में आने
वाली है और
एनएसजी मेंबरशिप की राह में अकेले चीन
ही बाधा है। हालांकि चीन की बाधा बड़ी
साबित नहीं होगी क्योंकि भारत को प्रमुख महाशक्तियों का
एकमत से समर्थन हासिल है। वहीं पाकिस्तान को भारत के बराबर दर्जा
देने की चीन की दलील में भी
विश्व को कोई दम नहीं दिख रहा है।
एनएसजी और एमटीसीआर की मेंबरशिप
मिल जाने पर वासेनार अरेंजमेंट और ऑस्ट्रेलिया ग्रुप का मामला अपेक्षाकृत आसान
हो जाएगा। तब भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह
और अमेरिका के तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री स्ट्रॉब टॉलबोट के
बीच कई दौर की जो वार्ताएं हुई थीं, वे अपने तार्किक
निष्कर्ष पर पहुंचेगी। हालांकि इससे अमेरिका को कुछ निराशा हो
सकती है।